Saturday, 30 July 2011

दिशा

अब अकेले ही चलेंगे पंथ धुंधला ही सही 

सांसे उधारी मांग उनसे 
कर लिए मेले बहुत 
उड़ गए बिन पंख ऐसे 
तितलियों के देश में 

और लेकर चल दिए 
रंगों की साड़ी खूबियाँ 
तारों से लिपटी चादरें 
चंदा जड़ी ली सारियां 

फिर गगन में ली कुलाचे 
संग हो ली बिजलियाँ 
आँधियों ने पथ बुहारा 
खोल सारी खिड़कियाँ 

और ऊपर और ऊपर  
और ऊपर भी गए 
बस वही ठोकर लगी 
निश्वास होकर गिर पड़े 

चीख उठी आह भरकर
साँस अब रुकने लगी 
हो गए निस्तेज पल पल 
आँख भी मुंदने लगी 

एक झटके में हुआ 
अपने शहर से वास्ता 
हाय कैसे भूल बैठी 
निज गली का रास्ता 

जल्द सोचा अब यही 
जीवन हमारा है 'मधु'
साँस अपनी ही भरेंगे 
एक थैला ही सही 

अब अकेले ही चलेंगे पंथ धुंधला ही सही 

मधु त्रिपाठी MM

Monday, 4 July 2011

गजल

गजल 



तेरा जाना,



तेरा  जाना,  
  जीवन की गति का रूक जाना 
    कल के आंसू डिबिया से, 
      मोती बन टपका जाना 
        तेरा जाना ...................

चाहा क्या 
  क्षण दे, ले दो क्षण,  
    पर ले हाथों में हाथ मेरा 
      सपना दे ठुकरा जाना 
         तेरा जाना ...................
       
मधु त्रिपाठी MM


 
  
यादें हमारी

  
मै राधा तुम श्याम रे   









                           ए श्याम कितनी दुःख की घड़ी है आज तुम्हारी यादों ने मुझे घेर लिया और तन्हाईयाँ बिस्तर बन गयी  जिसपर सारी रात लेटकर बिताना मजबूरी है क्या करू श्याम आज का चाँद तुम्हारा चेहरा लेकर  मुझे चिढाने आया है या स्वयं तुम्ही हो 






ए श्याम 
तुम्हें देखते ही मन बेबस 
क्यों हो जाता है
डर जाता है 
शायद तुम्हारे
बिछुड़ने से




जानता है एक बार 
मिलने के बाद 
बहुत दूर है मिलन दूसरा
आँखे भर-भर प्यार छलकाती है 
लबों तक उभर आई मदिरा  
पिला देने को तत्पर 
ये हाथ स्वयं बढ थाम लेते है तुम्हें  
खीच ले जाते है सीने तक
छुपा लेने को तुम्हारी सांसे  


 कुछ क्षण प्रकृति स्थिर हो
 देखती रह जाती है 


      दो विकल,
      बिछुड़ी आत्माओ  को 
      समय भी रूककर 
      प्रतीक्षा करता  है             
      हमारी विरत बाँहों को 
      देखने के लिए


      अनगढ़ा मिलन भय के अतिरिक्त 
      कुछ नहीं दे पाता 
      फिर सांसे परिवर्तित हो जाती है 
      स्थिरता की ओर  


 पृथ्वी की लौ उठकर दूर गगन में    
 विचरण करने के लगती है  
 कुछ देर के लिए 
 सारी प्रकृति रोमांचित हो 
 पुनः संलग्न हो स्वकार्य करती है 
 समय भी चल देता है    
 अपनी गति लिए 


 पुनः पुनः पा लेता  है 
 हर  क्षण अपना स्वरुप  
 बस रह जाते है निस्पंदित 
 दो हाथ, 
 निर्जीव सांसे   
 मूक मुद्रा 
 और 
 स्थिर गात 
                        
                                                              मधु त्रिपाठी MM