अब अकेले ही चलेंगे पंथ धुंधला ही सही
सांसे उधारी मांग उनसे
कर लिए मेले बहुत
उड़ गए बिन पंख ऐसे
तितलियों के देश में
और लेकर चल दिए
रंगों की साड़ी खूबियाँ
तारों से लिपटी चादरें
चंदा जड़ी ली सारियां
फिर गगन में ली कुलाचे
संग हो ली बिजलियाँ
आँधियों ने पथ बुहारा
खोल सारी खिड़कियाँ
और ऊपर और ऊपर
और ऊपर भी गए
बस वही ठोकर लगी
निश्वास होकर गिर पड़े
चीख उठी आह भरकर
साँस अब रुकने लगी
हो गए निस्तेज पल पल
आँख भी मुंदने लगी
एक झटके में हुआ
अपने शहर से वास्ता
हाय कैसे भूल बैठी
निज गली का रास्ता
जल्द सोचा अब यही
जीवन हमारा है 'मधु'
साँस अपनी ही भरेंगे
एक थैला ही सही
अब अकेले ही चलेंगे पंथ धुंधला ही सही
मधु त्रिपाठी MM
mere blog par padharne par abhar ..
ReplyDeleteaap achchha likhtin hain ...
safar jari rakhen.
shubhkamnayen....
मधु जी ये पंक्तियाँ अच्छी लगी और मार्मिक भी !
ReplyDeleteएक झटके में हुआ
अपने शहर से वास्ता
हाय कैसे भूल बैठी
निज गली का रास्ता
.
ReplyDeleteमधु जी
आप बहुत मन से लिखती हैं , इसलिए आपका लिखा मन पर असर करता है …
:)
कोटिशः मंगलकामनाएं !