Saturday, 18 June 2011

संध्या

  संध्या  



    बिना  आवाज  के ही चंद समुद्र के अंक से निकलकर आसमान से मानस मन को  अपनी ओर आकर्षित करने को पदार्पण कर रहा था दूसरी तरफ सूर्य अपनी थकान मिटाने समुद्र कि गोद मी आंख  मूंदकर सोना  चाहता था 




मै अपनी छत के ठीक बिचोबीच सिऱ्हाने तकिया रखे बडे गौर से देख रही थी कि   संध्या  ने अपनी लालिमा की कुछ  छटा मेरे अंग पर उडेल दी कितनी सुशील सादगी से निर्मित लगती यह सांझ बिल्कुल सोलह वर्षीय कुमारी कोई वन बालिका सी इसे अपलक देखते रहने कि उत्कंठा सदैव बनी ही रही थी कि जैसे उसे नजर ही लग गयी हो कुछ स्याह काले बादलों ने आकर  उसे घेर लिया अकेली बाला करती क्या सिवा समर्पण के


  कामुक यामिनी {रात}ने इस तऱ्ह बाहो के घेरे मी लिया कि  संध्या  का अंग अंग तारो के रूप  बदल गया सुकुमारी के मुख पर भय देख चतुर यामिनी ने उजाले के चांद को रात चमकणे का ठेका दे दिया 
  और  आगे ..............कल 


मधु 

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