पुनः
हा नियति ने फिर धरा के साथ खेला,
आज मन फिर से अकेला,
पंथ की पग डंडियाँ भी मुंह चिढ़ाती
आ बवंडर कान तक कुछ बड़बडाती
उष्णता के बीच पत्तों ने दी आहट,
उस सखे ने फिर गिराया मार ढेला
आज मन फिर से अकेला,
हा नियति ने फिर धरा के साथ खेला,
चाहते क्या हो की चाहत ही
न चाहूं चाह की
या बता दूं कोशिशे
नाकाम सारी आश की
क्यों मेरे जख्मों को कीलों से उकेरा
आज मन फिर से अकेला,
हा नियति ने फिर धरा के साथ खेला,
मधु त्रिपाठी
MM
प्रिय पाठको,
ReplyDeleteकभी फुर्सत में शब्दों का चयन कर गठन कर लेती हूँ
कृपया मेरे ब्लॉग को देखे एवं समालोचना कर मेरी संतुष्टि करे
धन्यवाद ,
madhu tripathi MM
tripathi 873 @gmail.com
no coments only feel-diljale
ReplyDeleteआज मन फिर से अकेला,
ReplyDeleteहा नियति ने फिर धरा के साथ खेला,
-मार्मिक पंक्तियाँ,सच को बयान करती हुई !
कृपया अपने बारे में भी कुछ लिखें ... इतना दर्द ..इतनी संवेदना आपका परिचय ?
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