Friday 14 October 2011

पुनः

पुनः 



हा   नियति ने फिर धरा के साथ खेला, 
आज मन फिर से अकेला,  

पंथ की पग डंडियाँ भी मुंह चिढ़ाती
आ बवंडर कान तक कुछ बड़बडाती  
उष्णता  के बीच पत्तों ने दी आहट,
उस सखे ने फिर गिराया मार ढेला

आज मन फिर से अकेला,
हा   नियति ने फिर धरा के साथ खेला, 

चाहते क्या हो की चाहत ही 
न चाहूं चाह की 
या बता दूं कोशिशे 
नाकाम सारी आश की 
क्यों मेरे जख्मों को कीलों से उकेरा 

आज मन फिर से अकेला,
हा   नियति ने फिर धरा के साथ खेला, 


मधु त्रिपाठी 
MM

4 comments:

  1. प्रिय पाठको,
    कभी फुर्सत में शब्दों का चयन कर गठन कर लेती हूँ
    कृपया मेरे ब्लॉग को देखे एवं समालोचना कर मेरी संतुष्टि करे
    धन्यवाद ,
    madhu tripathi MM
    tripathi 873 @gmail.com

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  2. no coments only feel-diljale

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  3. आज मन फिर से अकेला,
    हा नियति ने फिर धरा के साथ खेला,
    -मार्मिक पंक्तियाँ,सच को बयान करती हुई !

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  4. कृपया अपने बारे में भी कुछ लिखें ... इतना दर्द ..इतनी संवेदना आपका परिचय ?

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